
मेरे दोस्त, तुम मुझसे कुछ भी कह सकते हो…
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क्या तुम्हारा नगर भी
दुनिया के तमाम नगरों की तरह
किसी नदी के पाट पर बसी एक बेचैन आकृति है?
क्या तुम्हारे शहर में
जवान सपने रातभर नींद के इंतज़ार में करवट बदलते हैं?
क्या तुम्हारे शहर के नाईं गानों की धुन पर कैंची चलाते हैं
और रिक्शेवाले सवारियों से अपनी ख़ुफ़िया बात साझा करते हैं?
तुम्हारी गली के शोर में
क्या प्रेम करने वाली स्त्रियों की चीखें घुली हैं?
क्या तुम्हारे शहर के बच्चे भी अब बच्चे नहीं लगते
क्या उनकी आँखों में कोई अमूर्त प्रतिशोध पलता है?
क्या तुम्हारी अलगनी में तौलिये के नीचे अंतर्वस्त्र सूखते हैं?
क्या कुत्ते अबतक किसी आवाज़ पर चौंकते हैं
क्या तुम्हारे यहाँ की बिल्लियाँ दुर्बल हो गई हैं
तुम्हारे घर के बच्चे भैंस के थनों को छूकर अब भी भागते हैं..?
क्या तुम्हारे घर के बर्तन इतने अलहदा हैं
कि माँ अचेतन में भी पहचान सकती है..?
क्या सोते हुए तुम मुट्ठियाँ कस लेते हो
क्या तुम्हारी आँखों में चित्र देर तक टिकते हैं
और सपने हर घड़ी बदल जाते हैं…?
मेरे दोस्त,
तुम मुझसे कुछ भी कह सकते हो…
बचपन का कोई अपरिभाष्य संकोच
उँगलियों की कोई नागवार हरकत
स्पर्श की कोई घृणित तृष्णा
आँखों में अटका कोई अलभ्य दृश्य
मैं सुन रहा हूँ…
रचयिता: गौरव सिंह
स्वर: डॉ. सुमित कुमार पाण्डेय

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